posted on Trivia – The Spice of Life on 07/05/2023
चित्र स्रोत https://www.boldsky.com/ एवं https://www.sankalpindia.net/
जब मैं छोटी थी तब दूरदर्शन पर बड़े चाव से महाभारत और चाणक्य जैसे धारावाहिक देखा करती थी। उम्र कोई दस-ग्यारह साल की रही होगी। संवादों की गहराई तब पल्ले नहीं पड़ी। पर हमारा इतिहास इतना रोचक है कि ऐसे धारावाहिक सतही तौर पर समझ कर भी आनंद मिलता है। आज क़रीब चालीस साल बाद ऐसा प्रतीत हुआ कि हमारे बच्चे हमारे भव्य इतिहास को जानते ही कितना है ? ऐसे में उन्हें हमारे इतिहास से अवगत कराना हम अभिभावकों का ही तो कर्त्तव्य है।
यह सोचकर ही, हाल ही में, मैंने अपने बच्चों को ये दोनों धारावाहिक – महाभारत और चाणक्य – देखने के लिए प्रेरित किया। उन्हें कठिन संवाद समझाने और फिर से अपने बचपन को जीने हेतु साथ बैठकर इन दोनों धारावाहिकों को देखा। फिर से इन धारावाहिकों को देखते – देखते यह आभास हुआ कि शायद अब इनके गूढ़ार्थ को कुछ अधिक समझ पायी हूँ। आज भी महाभारत और चाणक्य कथा हमारे लिए कितने प्रासंगिक हैं !
दोनों ही कथाओं में दो ऐसे सशक्त पात्र हैं जिन्होंने इतिहास की दशा और दिशा को पूर्ण रूप से परिवर्तित कर दिया। मेरा इशारा है द्रौपदी और आचार्य चाणक्य की ओर। क्या आपको इन दोनों में कोई समानता नहीं दिखाई पड़ती ? क्या ये दोनों ही प्रतिशोध की अग्नि में नहीं जले ? क्या इन दोनों के आत्म-सम्मान को तब ठेस नहीं पहुँची जब इनके बालों के साथ छेड़ – छाड़ की गई ?
इन दोनों ही पात्रों ने यह प्रण लिया था कि जब तक वे उनका समूल नाश नहीं कर देते जिन्होंने उनका अपमान किया, तब तक वे अपने केश खुले रखेंगें। द्रौपदी के अपमानित और खुले केश महाभारत के युद्ध का एक प्रमुख कारण बने। जब तक द्रौपदी ने दु:शासन की छाती के लहू से अपने केश नहीं धोए, तब तक उसने उन्हें खुले ही रखे, जिससे पांडव भरी सभा में हुए अपमान को कभी भूल ही न पाए। द्रौपदी ने सभा में कौरवों को खुली चुनौती दी।
कुछ इसी प्रकार मगध के अहंकारी और विलासिता में डूबे सम्राट धनानंद ने अपनी सभा में चाणक्य का तिरस्कार किया और यह आदेश दिया की उनकी शिखा को पकड़कर उन्हें बाहर ढ़केल दिया जाए। जब चाणक्य के साथ यह अनर्थ हुआ, तब उन्होंने अपनी शिखा खोल दी और स्वयं से प्रण किया कि जब तक वे धनानद को सिंहासनच्युत नहीं करेंगे, तब तक वे अपनी शिखा को नहीं बांधेंगे। उनकी नागिन के फन सी लहराती हुई शिखा ने अंततः नन्द कुल को डस ही लिया। प्रण पूरा होने पर ही उनकी शिखा दोबारा बंधी।
इन दोनों ही प्रभावशाली पात्रों के जीवन में उनके बाल इतना महत्त्व रखते थे कि बालों के साथ किये दुर्व्यवहार ने ही इतिहास को एक नए मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया। आपका क्या मत हैं ?
अनीता,
आपने बहुत सुन्दर लिखा है, बधाई. यह भी प्रशंसनीय है कि आप अपने बच्चों को अपने प्राचीन इतिहास से अवगत कराने के लिए इतना प्रयास कर रहीं हैं.
आपकी स्थापना पर मैं सोच रहा था, क्या सिर्फ़ उनके बालों के साथ दुर्व्यवहार हुआ? या बाल प्रतीक थे जो जनमानस में अविस्मरणीय हो गए. अपमान उनके पूरे स्वत्व, पूरी मर्यादा का हुआ था. अन्याय जितना बड़ा था, उससे भी भयानक प्रतिशोध था.
बाल के कुछ रोचक प्रसंग हमारे साहित्य और धार्मिक संस्कारों में आते हैं. बालकृष्ण यशोदा मैया से उलाहना देते हैं, मैया, कबहुँ बढ़ैगी चोटी, और वे रूठ जाते हैं कि दूध पीते कितने दिन हो गए और ये अभी भी ज्यों की त्यों है.
रीतिकालीन कवि केशवदास का एक पद काफ़ी प्रसिद्ध है:
केसव केसन अस करी जो अरिहूं न कराहिं
चंद्रबदनि मृगलोचनी बाबा कहि कहि जाहिं
आप कल्पना कर सकतीं हैं एक अधेड़ उम्र के केशवदास के दु:ख को जो ओरछा के पनघट पर बैठे हुए सुन्दर बालाओं को ताकते रहते हैं और वे इनके सफ़ेद बालों को देखकर बाबा कह कर अपने रास्ते चली जाती हैं. ऐसी हालत तो ईश्वर शत्रुओं का भी नहीं करे.
श्राद्ध, पिंडदान में पूरे बाल काटने का विधान है. अभी मैं तिरूपति बालाजी के दर्शन करने गया था. यद्यपि मैं वहाँ की मान्यता के बारे में जानता था, फिर भी झुंड के झुंड महिलाओं को सपाट मुंड देखकर कुछ अटपटा लगा. इसपर मुझे याद आया कि एक राष्ट्रपति का तिरुपति में बाल छिलाते हुए फोटो टीवी पर आया था. मेरे मन में इससे उनका सम्मान नहीं बढ़ा.
AK
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अनिल जी, लेख की प्रशंसा करने के लिए धन्यवाद ! मुझे ख़ुशी है कि आपको विषय पसंद आया !
आप बिलकुल सही कहते हैं कि अपमान द्रौपदी और चाणक्य के बालों का ही नहीं, अपितु उनके पूरे स्वत्व, पूरी मर्यादा का हुआ था। बालों का अपमान वह अंतिम प्रहार था जिसने ज्वालामुखी को फूटने पर विवश कर दिया। हमारी संस्कृति एवं साहित्य में बालों को काफ़ी महत्त्व दिया गया हैं। आपके दिए उदाहरण कितने रोचक हैं!
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