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लफ़्ज़ों में फेर बदल – कुछ फ़िल्मी गीतों पर मेरा अभिप्राय


ट्रिविया – थी स्पाइस ऑफ़ लाइफ द्वारा २०/०६/२०२१ को प्रकाशित

मैंने हमेशा से चाहा कि मैं हिंदी फ़िल्मी गीतों के बारे में हिंदी में लिखूँ I जिस भाषा में गीत लिखे हैं, उसी भाषा में उनका विश्लेषण करने का आनंद कुछ और ही है I आज इस लेख में, मैं गुज़रे ज़माने के पाँच नायाब गीतों की चर्चा करुँगी I मेरा मानना हैं कि अगर इन गीतों के लफ़्ज़ों में थोड़ी सी तबदीली की जाती तो शायद गीत कुछ अलग लगते I यहाँ मैं स्पष्ट करना चाहूँगी कि मेरा उद्देश्य उन महान गीतकारों की आलोचना करना कतई नहीं है, जिन्होंने ये अमर गीत लिखे हैं I ऐसे होनहार गीतकार चिराग़ लेकर ढूँढने से भी नहीं मिलते I मैं गीत के बोलों पर सिर्फ़ अपनी राय पेश कर रही हूँ I अगर पाठकों को ये लगे कि यह छोटा मुँह बड़ी बात है, तो मुझे क्षमा करे I

१) मोहब्बत ही न जो समझे (परछाईं, १९५२ ) गीतकार : नूर लखनवी ; पार्श्व गायक : तलत महमूद ; संगीतकार : सी. रामचंद्र I तलत महमूद की मखमली आवाज़ में यह एक बेहतरीन गीत है, जिसे वी. शांताराम पर फिल्माया गया है। शांताराम ही इस फिल्म के निर्देशक भी थे I यह गीत राग बागेश्री में रचा गया है , जो कि सी. रामचंद्र का एक पसंदीदा राग था। उन्होंने फिल्म आज़ाद (राधा न बोले न बोले )और अनारकली (जाग दर्द-इ-इश्क़ जाग ) के गीतों में भी इस राग का सुन्दर प्रयोग किया है I गीतकार ने इस गीत में एक निष्ठुर प्रेमिका का बड़ा सटीक वर्णन किया है। इस गीत के बोल दिल को छू लेते है।


उसे तो क़त्ल करना और तड़पाना ही आता है
गला किसका कटा क्यूँकर कटा तलवार क्या जाने 

लेकिन क्या आपने मुखड़े के बोलों पर गौर फ़रमाया है ? मुखड़े के बोल हैं – मोहब्बत ही न जो समझे वो ज़ालिम प्यार क्या जाने I क्या आपको नहीं लगता कि ‘मोहब्बत‘ और ‘प्यार”, दोनों शब्द पर्यायवाची है। मुझे लगता हैं कि मोहब्बत और प्यार – दोनों लफ़्ज़ों को एक साथ मुखड़े में लिखना गीतकार की मजबूरी रही होगी क्योंकि उन्हें बोलों को गाने की धुन के अनुरूप लिखना था। प्यार शब्द का तुक अगली पंक्ति के शब्द झंकार से मिलाया गया है I मोहब्बत‘ और ‘प्यार” का एक साथ उपयोग करने के बजाय अगर बोलों को इस तरह लिखा जाये तो – मोहब्बत को न ये समझे ये ज़ालिम यार क्या जाने ?

 

२) चली कौन से देश ( बूट पॉलिश, १९५४ ) गीतकार : शैलेन्द्र ; पार्श्व गायक : तलत महमूद ; संगीतकार : शंकर जयकिशन I फिल्म बूट पॉलिश का यह खूबसूरत गीत न सिर्फ़ शैलेन्द्र ने लिखा है, बल्कि इसे परदे पर उन्हीं पर फ़िल्माया गया है। तलत महमूद और आशा भोसले की आवाज़ें कानों में रस घोलती है I इस गीत में शैलेन्द्र ने देशज शब्दों का बड़ा सुन्दर प्रयोग किया है; मसलन – गुजरिया, रसिया, अखियाँ, नगरिया और सवरिया I ऐसे में अगर गीत के मुखड़े में ‘देश ‘ के बजाय देशज शब्द ‘देस ‘ का प्रयोग किया होता तो शायद गीत से मिटटी की खुशबू और ज़्यादा आती I

चली कौनसे देश
गुजरिया तू सज धजके
जाऊँ पिया के देश 
ओ रसिया मैं सज धजके 

[ फिल्म मुसाफ़िर (१९५७) में भी एक एक गीत शैलेन्द्र पर फ़िल्माया गया है I]

३) भूल सकता है भला कौन (धर्मपुत्र , १९६२) गीतकार : साहिर लुधियानवी ; पार्श्व गायक : महेंद्र कपूर ; संगीतकार: एन. दत्ता I यह फ़िल्म विभाजन की पृष्ठभूमि पर, धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिकता को उजागर करती है। इस फ़िल्म में एक हिंदू परिवार, एक नाजायज़ मुस्लिम बच्चे की परवरिश करता है I इंद्राणी मुख़र्जी और शशि कपूर पर फ़िल्मायी गयी यह बेजोड़ ग़ज़ल साहिर ने लिखी है I आँखों की खूबसूरती को शायद और बेहतर शब्दों में ज़ाहिर नहीं किया जा सकता I ग़ज़ल में ज़्यादातर उर्दू के शब्दों का प्रयोग किया गया है, जो साहिर की ख़ासियत रही है। ग़ज़ल के दूसरे अंतरे में एक संस्कृत शब्द का प्रयोग किया गया है – ‘पुजारी‘। मैंने इस पर ग़ौर किया तो मुझे लगा कि अगर ‘पुजारी‘ ‘ की जगह किसी और उर्दू शब्द जैसे ‘दीवानी‘ ‘ का प्रयोग होता तो ज़्यादा अच्छा होता I जब अधिकतर शब्द उर्दू के हो तो उनमें एक संस्कृत शब्द जोड़ना कुछ अटपटा सा लगता है I मसलन अगर आप ‘जीवन बहुमूल्य है‘ न कहकर ‘ज़िन्दगी बहुमूल्य है” या ‘जीवन कीमती है ‘ कहे तो वह सुनने में थोड़ा सा अटपटा लगता है I

तुम जो नज़रों को उठाओ तो सितारे झुक जायें
तुम जो पलकों को झुकाओ तो ज़माने रुक जायें
क्यूँ न बन जायें इन आँखों की पुजारी आँखें 
रंग में डूबी हुई नींद से भारी आँखें

४) मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया ( हम दोनों, १९६१) गीतकार : साहिर लुधियानवी ; पार्श्व गायक : मोहम्मद रफ़ी ; संगीतकार: जयदेव I यह गीत साहिर लुधियानवी की एक और बेशकीमती पेशकश है। लेकिन ज़िन्दगी को ज़िंदादिली से गुज़ारने की बात कहने वाला यह गीत, कहीं न कहीं इशारों इशारों में सिगरेट के धुएँ में, ज़िन्दगी के ग़मों को उड़ाने की बात भी कह रहा है। और यह बात (मुझे) गवारा नहीं है I गीत जहाँ ज़िन्दगी के फ़लसफ़े को बयान करता है, वहीँ सिगरेट के धुएँ में पनाह लेने की बात भी कहता है I हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया के बजाय हर फ़िक्र को हँसी में उड़ाता चला गया भी तो कहा जा सकता है I हँसी भी तो मर्ज़ की दवा हो सकती है I

मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया 

५) शर्म आती है मगर आज  ( पड़ोसन, १९६८ ) गीतकार : राजिंदर कृष्ण, संगीतकार : आर. डी. बर्मन, पार्श्व गायिका : लता मंगेशकर। लता मंगेशकर की मधुर स्वर में, फिल्म पड़ोसन का यह प्यारा गीत मन मोह लेता है I लकिन गीत के कुछ लफ्ज़ मुझे मायूस करते है। गीत के मुखड़े के कुछ लफ्ज़ है – अब हमें आपके क़दमों ही में रहना होगा I इन बोलों से अधीनता का बोध होता है, बराबरी का नहीं I औरत को मर्द के क़दमों में क्यों रहना चाहिए ? क्या उसकी सही जगह उसके प्रेमी का दिल नहीं ? आपके  क़दमों ही में रहना होगा  के बजाय , अगर यहाँ पर आपके पहलू ही में रहना होगा लिखा जाएँ तो क्या ग़लत होगा ?

शर्म आती है मगर आज ये कहना होगा
अब हमें आपके क़दमों ही में रहना होगा 

हिंदी भाषा में ही हिंदी फ़िल्मी गीतों पर अपनी राय देने की मैंने एक छोटी-सी कोशिश की है I लेख समाप्त करते हुए मैं ये फिर दोहराना चाहूँगी कि इस लेख को लिखने के पीछे मेरा  प्रयोजन इन महान गीतकारों की आलोचना करना नहीं है। मैं केवल बड़ी विनम्रता से कुछ लफ़्ज़ों के बारे में अपनी राय रखना चाहती थी I

अस्वीकरण 

anitamultitasker.wordpress.com, इस साइट पर पोस्ट की गई किसी भी छवि, स्क्रीनशॉट या गाने के लिए कोई श्रेय नहीं लेता I  चित्र और स्क्रीनशॉट उनके मूल स्वामियों के कॉपीराइट हैं। पोस्ट को संवादात्मक बनाने के लिए गाने के लिंक YouTube से साझा किए जाते हैं। इन गीतों का कॉपीराइट संबंधित स्वामियों, निर्माताओं और संगीत कंपनियों के पास है।

11 thoughts on “लफ़्ज़ों में फेर बदल – कुछ फ़िल्मी गीतों पर मेरा अभिप्राय

  1. जब एक कवि हिंदी फिल्मके गीतकारकी भूमिकामें आता है तो उसे अपनी साहित्यिक अभिव्यक्तिओको फिल्मकी सीच्युएशननकी संकरी गलीमें से भी आसानी से गज़र जानेके लियिए सक्षम बनाना पडता है ।

    एक और जहां उसे फिल्मीया गीतोंको काव्यकी उंचाई पर ले जानेका संतोष मिलता होगा, वहं पर उसे ईस व्यावसायिक भयस्थानोंसे रास्ता बचानेके समाधान भी करने पडते हैं ।

    ईसीलिये साहिरने ‘मैं ज़िंदगीका साथे निभाता चला गया’ लिखने के साथे बिखा है

    जो मिल गया उसे मुकद्दर समझ लिया…..

    Liked by 1 person

    1. अशोकजी, आपने लेख को पढ़ा और हिंदी में अपनी राय दी, इस बात की मुझे बेहद ख़ुशी है। आप सही कहते हैं कि फ़िल्मी गाने लिखते समय गीतकार को समझौते करने पड़ते है। फिर भी, मुझे लगता है कि फ़िल्म के परिवेश की मांग और अपनी धारणाओं में संतुलन बिठाने का पूरा प्रयास किया जाना चाहिए।

      Liked by 1 person

  2. Anitaji,

    A nice article in Hindi on Hindi film songs!!

    Usually, we are used to changing a few words of a song to create a parody or new lyrics to suit a different situation.

    Its a good attempt to change words in a song to make it more relevant and in sync with our thinking and beliefs.

    Of course, one has to consider that these songs belong to a different era and song lyrics often are dictated by the social customs of those times and commercial compulsions.

    Still, I like the idea.

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    1. Thanks a lot for reading and commenting, Dr.Deshpande! Typing in Hindi is quite tedious. Nevertheless, I felt it was worth the effort. I agree that the lyrics are a reflection of contemporary society. Yet, I believe that a balance between the compulsions of the profession and our own morals and beliefs must be maintained, to the extent possible.

      Like

  3. अनीता,
    हमारे कान लगातार कोई लोकप्रिय गीत सुनते सुनते इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि हमें उनके शब्द अटपटे नहीं लगते. बल्कि जो आप कह रहीं हैं वह शायद हमें शुरु में अटपटा लगे. लेकिन मैं #2, 3 पर आपके विचारों से सहमत हूं. #1 के अटपटेपन को तो मैंं देख रहा हूं, लेकिन उसके परिमार्जन का आपका प्रयास मुझे और भी खटक रहा है. #4 में कहीं आप बाल की खाल तो नहीं लिकाल रहींं हैं? ‘धुएं में उड़ाना’ को मैं एक मुहावरे के रूप में देखता हूं. #5: उन दिनों political correctness की कोई विशेष अवधारणा नहीं थी. गीतकार को जो लफ्ज़ उस समय ध्यान में आया उसका प्रयोग कर लिया.

    मुझे कुछ गाने बहुत खटकते हैं, लेकिन किसी और कारण से. मैंने इसपर ‘व्याकरण, उच्चारण और उत्पीड़न’ (https://www.songsofyore.com/phonetic-and-grammatical-violence-in-songs/) शीर्षक से अपने ब्लॉग पर लिखा था, पता नहीं आपको देखने क अवसर मिला कि नहीं.

    लेकिन आपका प्रयास स्तुत्य है. आपने चर्चा शुरु की है. बात निकली है तो दूर तलक जायेगी.
    AK

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  4. ए के जी, लेख पढ़ने और बारीकी से समीक्षा करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
    1) आपके अनुसार पहले गीत के शब्द क्या होने चाहिए?

    2) जहाँ तक तीसरे गीत का सवाल हैं, अगर आप अंतरे को सुने तो एक के बाद एक उर्दू के लफ़्ज़ों के बाद जब अचानक ‘पुजारी’ शब्द सुनाई पड़ता हैं तो कुछ अजीब लगता हैं।

    3) चौथे गीत में ‘धुंए में उड़ाना’ मुहावरा हैं, यह मुझे मालूम नहीं था। मैंने ‘धुएँ के बादल उड़ाना’ मुहावरा सुना हैं जिसका अर्थ हैं ‘व्यर्थ की बड़ी बड़ी बातें कहना।

    4) पाँचवे गीत में मुझे लगा कि पोलिटिकल करेक्टनेस से ज़्यादा यह बराबरी की बात हैं।

    आपने मेरी कोशिश को सराहा, यह मेरे लिए बड़ी ख़ुशी की बात है।

    मैंने आपका ब्लॉग पोस्ट पढ़ा। इसके बारे में मैं आपको अवश्य ईमेल करूँगी। एक और लेख जो मैंने हिंदी फ़िल्मी गीतों में क्षेत्रीय भाषाओँ के प्रयोग पर लिखा है, अगर कभी मौका मिले, तो पढियेगा। “Songs with a Regional Twist” https://anitamultitasker.wordpress.com/2021/04/18/songs-with-a-regional-twist/

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  5. अनीता जी,

    नेट पर हिंदी में इतना सुन्दर आलेख देख कर प्रसन्नता हुई। इस पृष्ठ पर सभी गीतों का विश्लेषण बड़ा रोचक है और सोचने को विवश करता है।

    परछाईं के गीत को लेकर नूर लखनवी की बड़ी भद्द हुई थी। यह मामला करीब करीब वैसा ही था जैसा मदनमोहन जी के द्वारा सज्जाद हुसैन की एक धुन दोहराने का था–अर्थात बिलकुल अक्षम्य। पर दोनों ही दृष्टांत ऐसे हैं जहां गीतों की मधुरता और लोकप्रियता के सामने हम श्रोता सारे अवगुणों को भूलकर कलाकारों को क्षमा कर देते हैं।

    बूट पॉलिश के गीत पर आपकी राय से सहमत हूँ। इस फिल्म का निर्देशन यदि राजकपूर कर रहे होते तो शायद वो आपकी बात मान लेते!

    मेरे विचार में फ़िल्मी गीतकार कई बंधनों में काम करते थे। निर्माता, निर्देशक, संगीतकार, और कभी कभी प्रमुख कलाकार भी सुझाव देते थे, जो कई बार बाध्य होते थे। साहिर पंगे लेने के लिए प्रसिद्ध थे। पर अन्य गीतकार उनके समान कुंवारे नहीं थे। आप शायद कहें कि आपने साहिर का गीत भी #४ पर रखा है। पर यदि आप वीडियो देखेंगी तो देवआनंद को सिगरेट के धुओं के छल्ले उड़ाता पाएंगी। फिल्मांकन की दृष्टि से ‘धुएँ’ अधिक सटीक लगता है।

    तीसरे नंबर पर भी आपने साहिर का ही गीत रखा है। पर ‘पुजारी’ और ‘दीवानी’ में मात्राओं का अंतर है। आप गाने की पंक्तियों को गुनगुनाने को कोशिश करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा।

    पड़ोसन के गाने को अनु जी ने अपने ब्लॉग में ‘doormat’ गीत कहा था। आपका सुझाव उन्हें पसंद आता। चूँकि शास्त्रीय संगीत में मेरी पकड़ नहीं है इसलिए हो सकता है कि मेरा कथन गलत हो। पर कई रागों में कुछ ध्वनियाँ निषिद्ध हैं। इस गाने में शायद इस कारण ‘पहलू’ ‘कदमों’ का स्थान न ले पाए।

    पड़ोसन की समकालीन ‘ज्वेलथीफ’ का एक गीत था: ‘दिल पुकारे, आ, आरे, आरे; अभी ना जा मेरे साथी।’ मैं स्कूल में था और सोचा करता था कि इससे अच्छा तो मैं लिख सकता था। ‘साथी’ कि जगह ‘प्यारे’ का तुक भी मिलता था, मात्राएं भी एक थीं। यह समझ तो बाद में आयी कि ‘साथी’ शब्द का इस गीत कि मधुरता में कितना बड़ा योगदान था।

    Like

    1. कनस्य जी (मैं उम्मीद करती हूँ की मैंने आपका नाम ठीक से लिखा हैं ),
      पहली बार मेरा लेख पढ़ने और अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए धन्यवाद!

      मुझे लगता हैं कि हम सभी के साथ ये समस्या हैं कि जब हमारे कानों को कुछ लफ़्ज़ों की आदत पड़ जाती हैं तो विकल्प पर विचार करना मुश्किल हो जाता है।

      जहाँ तक ‘हम दोनों’ के गीत की बात हैं, मैं जानती हूँ कि परदे पर इसका चित्रण किस प्रकार हुआ है। दरअसल मुझे इसपर भी आपत्ति है। मेरा एक और लेख पढ़ियेगा तो शायद आपको मेरा नजरिया समझ आएगा। (https://anitamultitasker.wordpress.com/2021/03/27/vice-wise/)

      कई बार गीत किस तरह उभर कर आता हैं यह निर्भर करता हैं कि गीत के बोल पहले लिखे गए या धुन पहले बनायीं गयी। साहिर के बारे में कहा गया हैं कि वे अकेले ऐसे गीतकार थे जो पहले लिखते थे और फिर उनके बोलों को धुनों में पिरोया जाता था ।

      शास्त्रीय संगीत की जितनी मेरी समझ हैं, उसके अनुसार किसी शब्द के उपयोग पर पाबंदी नहीं हैं I पाबंदी सुरों पर हैं क्योंकि हर राग का आरोह और अवरोह अलग होता है और साथ ही सभी रागों में सारे सुर नहीं होते।

      इसी बीच मुझे लगा हैं कि दो और गीत हैं जहाँ शायद शब्दों का व्याकरण की दृष्टि से सटीक प्रयोग नहीं हुआ हैं।
      फिल्म जीवन मृत्यु के गीत ‘झिलमिल सितारों का आँगन होगा'(https://www.youtube.com/watch?v=v13cUeX6_co) का एक अंतरा हैं
      तेरी आँखों से सारा संसार मैं देखूँगी
      देखूँगी इस पार या उस पार मैं देखूँगी
      नैनों को तेरा ही दर्शन होगा
      रिमझिम बरसता सावन होगा

      दर्शन शब्द का प्रयोग हमेशा बहुवचन में ही होता है। दर्शन होते हैं, दर्शन होता नहीं है।

      फिल्म फंटूश के गीत – ‘दुखी मन मेरे’ (https://www.youtube.com/watch?v=VWk-Lwn1rcg) के अन्तरे में
      लाख यहाँ झोली फैला ले
      कुछ नहीं देंगे इस जग वाले

      यहाँ पर ‘इस’ का प्रयोग गलत है। सही सर्वनाम हैं ‘ये’

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