
This week even as I thought I would work on the second part of ‘Terrace’ songs, my daughter’s school kept me busy. My daughter, who is in the third standard had to stage a play on the story of Krishna Sudama in Hindi. The entire class was divided into 5 groups. Imagine doing a play live on Zoom! But then, that was the teacher’s diktat. The script had to be written and that too in Hindi. There were not many takers for this onerous job. It was then that I decided to give it a shot. I pondered over it and came to the conclusion that if long posts can be written in English on songs which are in Hindi, why not write something in Hindi? And so, here I present the script that I wrote after some research. I hope it would be useful for those who want to stage this.
नाटक – कृष्ण सुदामा
सूत्रधार : मित्रता का बंधन और बंधनों से बिलकुल अलग है क्योंकि मित्र हम स्वयं चुनते हैं। हमारे ग्रंथों और पुराणों में मित्रता के कई उदहारण हैं पर सच्ची मित्रता का सबसे उत्तम उदहारण देना हो तो वो होगा कृष्ण और सुदामा की मित्रता का । मित्रता की सही परिभाषा समझाने के लिए हम आज आपके समक्ष कृष्ण और सुदामा की कथा का नाट्य रूपांतर प्रस्तुत करेंगे I
सूत्रधार : कृष्ण और सुदामा में बचपन से ही गहरी मित्रता थी I वे एक ही गुरु -ऋषि सांदीपनि – के शिष्य थे I कृष्ण आगे चलकर द्वारका के राजा बने पर सुदामा का जीवन गरीबी में ही बीता I
सूत्रधार : एक दिन की बात है I सुदामा जब अपनी कुटिया में लौटे तो पाया कि उनकी पत्नी सुशीला बड़ी दुखी थी क्योंकि बच्चे भूख से बिलख रहे थे और खाने को कुछ भी नहीं था I
सुशीला (रोते हुए) : स्वामी, आज भी बच्चे भूखे पेट ही सोये हैं I ऐसा कब तक चल पायेगा? आपने कई बार बताया है कि द्वारका के राजा श्री कृष्ण आपके परम मित्र है I आप उनसे मिलते क्यों नहीं? वे अवश्य आपकी सहायता करेंगेI
सुदामा (दुखी होकर, संकोच के साथ): ठीक है, सुशीला I तुम कहती हो तो मैं चला जाता हूँ पर कृष्ण से सहायता माँगने में मुझे हिचकिचाहट हो रही है I साथ ही, यह भी सोच रहा हूँ कि उसे क्या भेंट दू? घर में तो ऐसा कुछ भी नहीं है जो मैं उसे उपहार स्वरुप दे सकूँ I
सुशीला (कुछ हड़बड़ी में): स्वामी, मैं पड़ोसिन से कुछ भुना हुआ चावल लेकर पोटली में बांधकर आपको दूंगी I यही आप अपने मित्र को उपहार स्वरुप दे दीजियेगा I
सूत्रधार : सुशीला पड़ोसिन से कुछ भुने चावल लाती है और उसे एक पोटली में बाँधकर सुदामा को देती है I
सूत्रधार : सुदामा कृष्ण से मिलने घर से निकल तो पड़ते है पर उनका मन बड़ा व्याकुल है I
सुदामा (मन ही मन): मैं एक निर्धन ब्राह्मण जिसकी अवस्था दयनीय है और कृष्ण इतना बड़ा राजा – क्या कृष्ण मुझे पहचानेगा ?
सूत्रधार : यही सोच विचार करते हुए सुदामा चलते चलते आखिरकार द्वारका तक आ पहुंचे और कृष्ण के महल के द्वार पर आकर रुक गए I
सूत्रधार : महल के द्वार पर खड़े द्वारपाल ने सुदामा से पूछा –
द्वारपाल : आप कौन हैं और आपको किस से मिलना हैं ?
सुदामा : मैं सुदामा हूँ और मुझे द्वारका के राजा, श्री कृष्ण से मिलना है I
द्वारपाल (ऊपर से नीचे तक सुदामा को देखते हुए): द्वारका के राजा से भला आपका क्या काम हो सकता है ?
सुदामा : मैं कृष्ण का मित्र हूँ और मुझे इसी नाते उससे मिलना है I
द्वारपाल: ठीक है। आप यही प्रतीक्षा कीजिये I मैं महाराज को आपके आने की सूचना देता हूँ I
सूत्रधार : जैसे ही कृष्ण ने सुना की सुदामा उनसे मिलने आये है, वैसे ही वे ख़ुशी से झूमते हुए स्वयं महल के बाहर दौड़ पड़े और सुदामा को गले से लगा लिया I
कृष्ण : सुदामा! तुम मुझसे मिलने आये हो! इससे अधिक ख़ुशी की क्या बात हो सकती है ?
सूत्रधार :फिर आदरपूर्वक, कृष्ण उन्हें अपने रथ में बिठाकर महल में ले गए I कृष्ण का यह प्रेम और अपनापन देखकर सुदामा बहुत प्रसन्न और भावुक हो गए I महल में ले जाकर कृष्ण ने स्वयं उनके चरण धोये और उन्हें अपने साथ सिंहासन पर बिठाया I फिर दोनों बचपन की बातों को बड़े चाव से स्मरण करने लगे I सुदामा अपने साथ ले आये पोटली को छुपा रहे थे क्योंकि उन्हें यह उपहार बहुत तुच्छ लग रहा था I कृष्ण ने उनके मन की अवस्था को समझ लिया और बोले –
कृष्ण: सुदामा, हम कितने समय पश्चात मिले हैं ! भाभी ने अवश्य ही मेरे लिए कोई उपहार भेजा है और मैं देख रहा हूँ कि तुम उस उपहार को छुपा रहे हो I अब उपहार दे भी दो I (हाथ बढ़ाकर उपहार सुदामा के हाथ से जबरदस्ती लेते हुए)
सूत्रधार : कृष्ण ने बड़ी उत्सुकता से पोटली को खोला और उसमें बंधे भुने हुए चावल देखकर वे अत्यधिक प्रसन्न हुए I उन्होंने चावल इस प्रकार खाया कि मIनो कोई स्वादिष्ट पकवान हो I कृष्ण को चावल खाते देख सुदामा की आँखें भर आयी I उन्हें अपने मित्र पर और अधिक गर्व होने लगा I
सूत्रधार: सुदामा ने कुछ दिन कृष्ण के साथ उनके महल में ही बितायेI कृष्ण ने उनका हर तरह से ख्याल रखा I एक दिन सुदामा ने तय किया कि उन्हें वापस अपने घर लौटना होगा I कृष्ण ने गले मिलकर उन्हें भारी मन से विदा किया I सुदामा ने स्वयं कृष्ण से अपनी समस्या के बारे में कुछ नहीं कहा I कृष्ण ने भी उन्हें कोई उपहार या धन नहीं दिया I
सुदामा (घर लौटते हुए, मन ही मन) : कृष्ण ने कोई सहायता नहीं कीI अब मैं सुशीला से जाकर क्या कहूंगा?
सूत्रधार : इसी तरह के ख्यालों में खोये हुए सुदामा अपने घर वापस पहुंचे I जब उन्होंने अपने घर को देखा, उन्हें अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हुआ I
सुदामा (आश्चर्य चकित होकर) : यह क्या !! मेरी जर्जर अवस्था वाली कुटिया के स्थान पर इतना भव्य महल ??
सूत्रधार : इतने में उनकी पत्नी भी बाहर आयी I उसके चेहरे पर अलग ही तेज था I उसने सुन्दर वस्त्र और आभूषण पहने हुए थे I
सुशीला : स्वामी, आपके द्वारका जाते ही एक रात यह काया पलट हो गया। लक्ष्मी जी ने हम पर अपनी असीम कृपा बरसाई I
सुदामा (गदगद होते हुए और आँखों से अश्रु बरसाते हुए) : कृष्ण ने मेरी मित्रता की लाज रख ली I बिना मेरे कहे ही वह सब कुछ समझ गया I ऐसा मित्र पाकर मैं धन्य हूँ I
सन्देश – इस नाटक से हमने यह सीखा कि सच्ची मित्रता में ऊँच नीच का कोई भेद भाव नहीं होता I साथ ही सच्चा मित्र स्वयं ही अपने मित्र की समस्या को समझ लेता है और उसकी सहायता करता हैI परन्तु उस पर कोई एहसान नहीं जताता I
पात्र परिचय
सूत्रधार
सुदामा
कृष्ण
सुशीला
द्वारपाल
There were a few learning points for me as I wrote the script. Typing in Hindi is one of the biggest impediments. But this can be overcome with some tools on the internet. However, proofreading is warranted. I also realized that writing in the language in which the content of the subject is helps to understand the nuances better. In future, I shall try to write a post or two in Hindi.